Congo Bongos || Glockenspiel

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बोंगो(Bongos)


वर्तमान में पाश्चात्य संगीत में लय धारणा के लिए जिन अवनद्ध वाद्या का अधिक प्रचलन है, उनमें बोंगो एक प्रमुख वाद्य है। भारतीय सुगम संगीत में अब इन वाद्यों का प्रयोग होने लगा है। बोंगो एक छोटा-सा वाद्य है जिसके तबले के दाएँ बाएँ के समान दो अंग होते हैं, जो एक -दूसरे से आपस में जुड़े रहते हैं। इस पर तबले के समान बोल नहीं निकाले जा सकते हैं अपितु केवल मात्रिक आधार पर लय धारण की जाती है। बोगो के एक भाग से ऊँची तथा दूसरे भाग से नीची ध्वनि निकलती है। बोंगो का दायाँ अंग अपेक्षाकृत बाएँ अंग से थोड़ा छोटा होता है, बायोँ मुख बड़ा तथा दायाँ मुख छोटा होता है। छोटे मुख पर पतली तथा बड़े मुख पर मोटे चमड़ी की परत चढ़ाई जाती है. पड़ी के किनारे को स्टील के रिंग में फेसाकर मुख पर फिट किया जाता है। रिंग के किनारों पर चार दिशा में चार स्टील की छड़ी फॅसी होती हैं, जो नीचे की ओर से बोल्ट द्वारा कसी जाती है। इन बोल्टों द्वारा पूड़ी को ऊँचे या नीचे स्वर में स्थापित किया जाता है। बंगो को गायक या वादक के स्वर के मध्यम या पंचम स्वर में मिलाया जाता है। बोंगो को अधिकतर क्सी या स्टूल पर बैठकर बजाया जाता है। बजाते समय इसे दो घुटनों के बीच रखकर नीचे की ओर झूकाकर फॅसा लेते हैं, जिससे बजाने में सुविधा रहती है। बोंगो पर विदेशी तालांकन के अनुसार 2-3, 3-4, 2-2, 3-3 आदि मात्राओं के मेल से लयधारणा की जाती है।

कोंगो(Congo)


बोंगो के समान ही कोंगो भी वर्तेमान पश्चात्य सगात के अवनदद्र वाद्यों में प्रमुख वाद्यहै। यह बोंगो से काफी बड़ा होता है। कोगो के तीन अंग होते हैं। ये तीनों अंग क्रम से बड़े, मध्यम व छोटे होते हैं। इसके प्रत्येक अंग की लम्बाई बोंगो से बड़ी होती है। इसके तीन मुख होते हैं, जो क्रमश: व्यास से बड़े, मध्यम तथा छोटे होते हैं। इन तीनों मुखों पर क्रमश: मोटी, मध्यम तथा पतली चमड़ी की पूड़ी चढ़ाई जाती है। बोगो के समान ही पूड़ी को स्टील के रिंग में फँसाकर मुख पर फिट बैठाया जाता है।

बोगो की तरह ही स्टील की छड़ें तथा बोल्ट लगे कोंगो को सुविधथानुका
अलग-अलग प्रकारों के स्वरों में मिलाया जा सकता है, जो निम्न है

पहला अंग दूसरा अंग तीसरा अंग
एक प्रकार-सा रे
दूसरा प्रकार- सा
तीसरा प्रकार-सा सां

जायलोफोन (Xylophone)

यह एक विदेशी वाद्य है, जो घन वाद्यों की श्रेणी में आता है। चार पैरों वाले लोहे स्टैण्ड पर रखा हुआ यह वाद्य भारतीय काष्ठ तरंग या काँच तरंग की तरह होता है, जिसमें स्टील की अनेक पट्टियाँ होती हैं। इसे गद्देदार मुख वाली दो छंडिेंयों से टंकोर देकर बजाया जाता है।

हारमोनियम की पट्टियों की तरह इस पर लगी लोहे की पट्टियाँ छोटी व बड़ होते
हैं, जिनसे अलग-अलग स्वरों की आवाज निकलती है इन पट्टियों को आगे – पीछे करके इच्छित स्वरों से सैट कर लिया जाता है। गीत-संगीत में निश्चित स्थलों पर इसकी चोट से स्वर की जो गूँज उत्पन होती है उसका प्रयोग तो ताल-आधात की तरह होता है, लेकिन यह संगीत की मधुरता को चौगुना कर देता है।

गलोकन स्पाइल (Glockenspiel)

यह स्टील की प्लेटों का सेट होता है। इन प्लेटों को लकड़ी की छोटी-छोटी डण्डियों से बजाया जाता है। ये स्टील की प्लेट निश्चित स्वरों की होती हैं। इण्डियों के अग्र भाग में तन्तु के अथवा रबड़ के गुट्टे लगे होते हैं।

सेलेस्टा (Celesta)

यह वाद्य स्पाइल के समान ही होता है। इस वाद्य में लगी प्लेटों में अनुवादक लगा रहता है., जिसके कारण उत्पन्न ध्वनि में वजन अकर अधिक समय तक स्थिर रहती है। इसे बजाने के लिए एक की-बोर्ड होता है। की -बोर्ड की प्रत्येक पट्टी के साथ तथा स्टील प्लेट के साथ स्ट्राइगर लगा रहता है। की-बोर्ड की पट्टी पर दाब से स्टाइगर उचककर प्लेटों पर प्रहार करता है तथा ध्वनि उत्पन्न होती है।


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