पाश्चात्य विद्वानों का योगदान भारतीय संगीत में || Bharat muni || Sarangdev

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भरतीय संगीत में विद्वानों का योगदान


भारतीय संगीत के विकास में कलाकारों एवं विभिन्न विद्वानों का महत्त्वपूर्ण शोगदान है। समय-समय पर संगीतज्ञ विद्वानों ने अपनी रचनाओं एवं नई शोथों के प्रयोग से वादन एवं गायन के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की विधाओं को जन्म दिया है। प्राचीन से आधुनिक कालक्रम तक संगीत विकास में अरतमुनि, शारंगदेव, सुभद्रा चौधरी आदि का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
संगीत प्राचीनकाल से प्रचलित है और इस कला से निकले संगीतज्ञों ने अत्यन्त कलात्मकता के साथ नवीन्यपूर्ण रूप में
संगीत के सैद्धवान्तिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों को अपनी प्रतिभा एवं कलात्मकता के बल पर संगीत कला को एक नया आयाम दिया है। हम यहाँ जिन संगीतज्ञों का विवरण दे रहे हैं ये वो संगीतज्ञ हैं जिन्होंने हमारे भारतीय संगीत के विविध क्षत्रों का प्रचार-प्रसार किया है। विभिन्न विद्वानों द्वारा संगीत में योगदान को निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है


भरत(Bharat)

भारतीय संगीत में भरत का वाशष्ट स्थान है, इन्होने न किवल भारतीय संगीत का प्रचार -प्रसार किया बल्क इन्होंने संगीत के विकास में भी अग्रणी भूमका निभाई। भरत नाट्य के आदि प्रयोक्ता थे, जिन्हें व्रद्मा का शिष्य माना जाता है।
ने ‘भाव-प्रकाशन’ में भाव, राग, ताल के प्रथम अक्षरों में ही भरत का उल्लेख किया गया है।
शारदातनय ने अरतकृत नाद्यशास्त्र संगीत की एक महत्त्वरपूर्ण रचना है। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें संगीत नाट्य नृत्य एवं काव्य का सर्वप्रथमं प्रौढ़ विवचन पाया जाता है। कनिष्क के काल के उपरान्त ही
भरत ने संगोत का प्रसिड नाट्यशास्त्र लिखा। भरतमुनि क नाट्यशास्त्र का काल कुछ विद्वान् 200 ई. पू. से 400 ई. के मध्य का मानते हैं।
विभिन्न विद्वानोंकी मान्यता के आनुसार भरत शब्द से तात्पर्य अभिनय करने वाले व्यक्ति से है। इस कारण भरत का नाम नाट्यशास्त्रों से जुुडा हुआ है। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि यह ग्रन्थ किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है. परन्त इसके कोई तथ्य परक स्रोते उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में नाट्यशास्त्र के तीन संस्करण प्राप्त होते हैं. जो
बम्बई, बड़ौदा, बनारस से सम्बन्धित हैं। इस स्करण के पाठ भेद तथा अध्यायों एवं श्लोकों की संख्या और ऋवेद से यह स्पष्ट होता है कि इन ग्रन्यों में काफी परिवर्तन होते रहे होंगे। इसके बाद भी विभन्न विद्वान् इसी पक्ष में हैं कि यह किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है।

योगदान(Yogdan)


नाट्यशास्त्र के छ: अध्याय संगीत से सम्बन्ध रखते हैं, जो 2৪ अध्याय से 33 अध्याय तक हैं। इसके 28वें अध्याय में वाद्ययन्त्र के चार भेद-स्वर, श्रुत, ग्राम, मूच्छनाएँ एवं अठारह जाति आदि के ग्रह, अंश न्यास इत्यादि का विवरण है।इसके 29वें अध्याय में जातियों का रसानकूल प्रयोग तथा विभिन्न प्रकार की वीणाएँ तथा उनकी वादन विधियों के बारे में चर्चा की गई है। 30वें अध्याय में सुषिर वाद्यों के बारे में चर्चा की गई है। 31वें अध्याय में कला, लय और
विभिन्न तालों का विवरण दिया गया है। 32वें अध्याय में ध्रवा के पॉच भेद, पाँच छन्द विधि तथा गायन वादकों के बारे में बताया गया है। 38ें अध्याय के अन्तर्गत अवनद्ध वाद्यों की उत्पत्ति, भेद, वादन विधि, इनके वादन करने की अठारह जातियों और वादकों के लक्षण में संक्षेप में वर्णन किया गया है। इस प्रकार देखा जाए तो 28 से 29वें अध्याय अति महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त छठे अध्याय में रस के लक्षण और उनकी व्याख्या, भाव के लक्षण और उनकी व्याख्या, आठ रसों का उनके उपकरणों सहित वण्णन, रसों के देवता और वर्ण तथा इसके 7वें अध्याय में भाव-विभाव, अनुभाव आदि की सामान्य व्याख्या, स्थायी, व्यभिचारी और सात्विक भावों का विवरण दिया है। इसके अतिरिक्त 19वें अध्याय में स्वरों का रसों में विनियोग, तीन स्थान काकू अलंकार आदि का वर्णन किया गया है।

शारंगदेव(Sarangdev)


शारंगदेव के पिता श्री सोढ़ल का जन्म कश्मीर में हुआ था, किन्तु कश्मारि पर यवनों के आक्रमण से परेशान होकर कश्मीर छोड दिया और दक्षिण चले गए। यहाँ यादव नरेश भिल्लम के पूत्र की राज सभा के पण्डित बने। 18वीं शताब्दी के उत्तराद्धर में पण्डित शारंगदेव ने संगीत रत्नाकर की रचना की। डॉ. जतिन्द्र सिंह ‘भारतीय संगीत और बृहस्पति ग्रन्थ’ में लिखते हैं कि श्री सोढ़ल के पुत्र आचार्य शारंगदेव भी महाराज सिंहण के आश्रित थे। भारतीय संगीत के प्रसिद्ध एवं प्राचीन ग्रन्थ संगीत रत्लाकर के रचयिता शारंगदेव 13वीं शताब्दी के पूर्वार्दधर में देवगिरी के शासक के दरबार में रहते थे। इनके बाबा कश्मीरी ब्राह्मण थे, जो बाद में देवगिरी में आकर बस गए। इन्होंने संगीत र्नाकर नामक ग्रन्थ में नाद, श्रृति, स्वर, ग्राम, मूच्छना, जाति इत्यादि की भली- भाति विवेचना की है। इन्होंने पूर्व लिखित ग्रन्थों की सामग्री लेकर त्कालीन उत्तरी-दक्षिणी संगीत का समन्वय किया है। इसमें उन्होंने 12 स्वर माने हैं तथा सात शुद्ध और ग्यारह विकृत जातियाँ मानी हैं । इन् जातियों का विस्तृत वर्णन करने के बाद ग्राम रागरों को जातियों से उत्पन्न बताया है और इसमें ग्राम रागों से ही अन्य राग विकसित बताए हैं।


योगदान (Yogdan)


शारंगदेव ने अपनी रचनाओं के माध्यम से संगीत को नया रूप प्रदान किया है। इनकी रचनाओं में संगीत स्वरों और रागों को नया रूप देने का प्रयास किया गया है। अतः दक्षिण भारतीय संगीत पर भी इनका प्रभाव स्पष्ट दिखता है। शारंगदेव के स्वर और राग आधूनिक स्वर तथा रागों से मेल नहीं खाते, परन्तु उन्होंने जो श्रुत्यंतर का्यम किए थे, वे आज के श्रत्यंतरों से भिन्न हैं। यद्यपि संगीत रत्नाकर में वर्णित राग आज उपयोग में नहीं आते, तथापि पुस्तक के अन्य
भागों में विस्तृत विवरण इन विद्वानों ने दिया है। उससे आधुनिक समय में बहुत सहायता मिलती है। कुछ विद्वानों ने शारंगदेव को शुद्ध ठाठ मुखारी जिसे आधुनिक कर्नाटक संगीत में कनकांगी’ भी कहते हैं, स्वीकार किया है। संगीत
रत्नाकर भारतीय संगीत का आधार ग्रन्थ है। कल्लिनाथ और सिंहभूपाल नाम के अचायों ने इसकी टीका की, जियली संगीत रत्नाकर को समझना अब आसान हो सका है। शारंगदेव ने संगीत रत्नाकर नामक ग्रन्थ में नाद, श्रुत, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना जाति इत्यादि का भली- भाँति विवेचन किया। शारंगदेव के बचपन का निःसंक होने के कारण उनके द्वारा उद्भाषित वीणा को ‘नि:संक वीणा’जाता है।
शारंगदेव ने पूर्व लिखित ग्रन्थों की सामग्री लेकर तत्कालीन उत्तरी एवं दक्षिणें संगीत का समन्वय किया। शारंगदेव द्वारा रचित ग्रन्थ संगीत रत्नाकर 600 वर्षें से अधिक समय से भारतीय संगीत का आधार ग्रन्थ रहा है।


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