भोजपुरी लोकगीत || Bhojpuri Lokgeet || Kumaoni Lokgeet

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भोजपुरी लोकगीत


उत्तर प्रदेश में लोकगीतों में भोजपुरी लोकगीत अपना विशेष महत्व रखता है। भोजपुरी बोलो हिंदी की बोलियों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। भोजपुरी लोकगीतों में समग्र जान – जीवन का जीवन – चित्रण उजागर रहता है। भोजपुरी गीतों का वर्णन उनकी गुणवक्ता के आधार पर श्रमगीत, संस्कार गीत व सांस्कृतिक गीत में देखा जा सकता है।
श्रम गीत – इन श्रम गीतों को खेतों में किसान व मजदूर लोग काम करते समय अपनी थकान दूर करने के लिए एक स्वर में गुनगुनाते है। यही यहाँ के श्रम गीत है। इन गीतों में जन – जीवन की चर्चा का आधार स्पष्ट होता है।
संस्कार गीत – संस्कार गीतों के अंतर्गत प्रत्येक अवसर पर लोकगीत गाए जाते हैं, जिसमे प्रमुख हैं – तिलक, सगुन, देवी गीत,मंगल विवाह, सुहाग, जोग, बन्ना – बन्नी उठान, जारी, मीट – कोवड़ा, पाकी पूजना, ओखला पूजन,हरदी उबटन सज्ञा, कोहबर, पराते चउक के गीत, परिहन के गीत, भावर, दोहद सोहर, मुंडन छुड़ाना आदि।
सांस्कृतिक गीत – सांस्कृतिक गीतों के अंतर्गत व्रत एवं त्यौहार व मेलों में गए जाने वाले गीत होते हैं, जो प्रत्येक अवसर पर गाए जाते हैं। इन गीतों में यहाँ के क्षेत्रीय जीवन की झाँकी देखने को मिलती है।

उत्तराखंड लोकगीत

उत्तराखंड एक पहाड़ी क्षेत्र है, जिसमे प्रचीन लोकसंगीत व लोकगीतों संरक्षित है। ये विभिन्न अवसरों पर विभिन्न लोकगीतों का गायन करतें है। यह मुख्यतः गढ़वाली तथा कुमाऊँ के क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
इस प्रकार उत्तराखंड के लोकगीतों को शैली, भाषा, वर्ण्य – विषय तथा गायन समय आदि के आधार पर बाँटकर देखा जा सकता है।
किसी जाति/समुदाय के जीवन में लोकगीतों का बड़ा महत्व होता है। गढ़वाल के लोकगीत उस पर्वतीय भूभाग की आकाक्षाओं, भावनाओं, हर्ष और दुखों का प्रतिनिधित्व करते है। जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है।
जीवन पर लदी कठोरता का भार, जो कि गढ़वाल के लोगों को निरंतर प्रकृति और कुरूप प्रभावों से संघर्ष करने के कारण सभी पहलुओं को आच्छादित किए हुए है। वह गीतों को गाते हुए हल्का हो जाता है। क्यूंकि ये उनके हृदय के ऐसे उदगार है। जो उनकी भावनाओं को पूरा प्रश्रय देते हैं। अतः गढ़वाली तथा कुमाऊँ में प्रचलित प्रमुख लोकसंगीत निम्न है।

गढ़वाली लोकसंगीत


उत्तराखंड के पहाड़ी भाग जहाँ की संस्कृति में गीत – संगीत बसा हआ है। गढ़वाली जीवन एक प्रकार से सम्पूर्ण भारत का अंग बन गया है। यहाँ के लोगीतों व लोकनृत्य में भारत के अनेक अँचलों की चाप दिखाई देती है। गढ़वाल में लोकगीतों का बहुत महत्त्व है, यहाँ प्रत्येक अवसर पर लोकगीत होते हैं। कुछ महत्वपूर्ण लोकगीत निम्न हैं ।

मांगल गीत – ये गीत शादी समारोह एवम पूजा के समय गाये जाते है। शुभ कार्यों में मांगल गीतो का आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड में मांगल गीत, शादी, जन्म, मुण्डन, जनेऊ सभी अवसरों पर गाए जाते थे। लेकिन वर्तमान में शादी में ही मांगल गीत गाए जाते है।
विवाह की ऐसी कोई रस्म नहीं है जो मांगल के बिना पूरी हो जाए। ये गीत विवाह के विविध पक्षों को ही नहीं बल्कि उनके भावनात्मक स्वरूप को भी सुन्दर सजीव व्याख्या के रूप में प्रस्तुत करते है।


जागर गीत –
गढ़वाल में देवी – देवताओं से सम्बन्धित लोकगीतों को जागर गीत भी कहा जाता है। भक्ति रस से परिपूर्ण ये गीत कथात्मक होते हैं, जिनमे महाभारत की कथा, नरसिंह भरों, हनुमान,देवी आदि से सम्बन्धी होते है। इन्ही जागर गीतों में बहुत – प्रेत आदि सेसम्बन्धी गीत भी गाए जाते हैं। भूत – प्रेतों की छाया से बचने के लिए ‘शैखनी’ नामक गीत गाया जाता है।

वीरगाथा गीत – गढ़वाल में वीरगाथा सम्बन्धी गीतों को पावड़ा कहा गया है। राजस्थानी, गुजरात, मराठी, बुंदेली, भोजपुर तथा ब्रज आदि भाषाओं केक वीर गीतों के लिए भी थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ इसी शब्द का प्रयोग होता आया है।

ऋतु गीत – गढ़वाल संस्कृति में प्रकृति का विशेष महत्व है। यहाँ के ऋतु गीत इन्ही भावनाओं से ओत – प्रोत है यहाँ के ऋतु गीतों में बसंत ऋतु के जाएत शरद ऋतु के गीत अधिक प्रचलित है। बारहमासा गीत ऋतु परिवर्तन सम्बन्धी गीत है।

खुदेड़ गीत – यहाँ के खुदेड़ जीतों में स्वयं को मिटाने के प्रयास की गाथा होती है। यह गीत मायके तक न पहुंचने वाली नारियों के ह्रदय विदारक गीत है। इन्ही गीतों में एक प्रकार है – ‘झुमैला गीत’ जिसमे गाँव की कन्याएँ तथा मायके आई नवविवाहिता समूह बनाकर गीत गाती है। गढ़वाल में होली गीतों भी विशेष प्रचलन है। जातियों के गीत, श्रमगीत जिनमे बसंत जुबन्द,बारहमासी तथा अनेक सामूहिक गीत का सृजन हो जाता है।
गढ़वाली जीवन में सामाजिक रीती – रिवाज, कुरीतियों एवं ऋतु वर्णन से सम्बंधित लोकगीतों के भरमार है, जो भारतीयों जीवन की जीतों के माध्यम से सचित्र वर्णन करते हैं।

कुमाउँनी लोकगीत (Kumaoni Lokgeet)

धार्मिक गीत
धार्मिक गीतों की सँख्या कुमाऊँ में अधिक है । धार्मिक गीतों में पौराणिक आख्यानों वाले गीतों का प्रथम स्तर पर लिया जा सकता है । ऐसे गीतों में दक्ष प्रजापति के यज्ञ से लेकर रामायण, महाभारत के अनेक अवसरों के गीत आ जाते हैं । ऐसे गीतों का क्रम बहुत लम्बा चलता है । पौराणिक देवी-देवताओं के सभी गीत इस क्षेत्र में गाये जाते हैं ।धार्मिक गीतों के अन्तर्गत स्थानीय देवी-देवताओं को भी स्थान मिला है । इन्हों जागर गीत के नाम से जाना जाता है । गढ़वाल-कुमाऊँ में ‘जागरों’ का विशेष महत्व है । जागरी, ढोल, हुड़का, डौंर-थाली बजाकर देवता विशेष के जीवन व कार्यों का बखान गीत गाकर करता है । जिस व्यक्ति पर ‘देवता’ विशेष अवतरित होता है – वह डंगरिया कहलाता है । जागरी जैसे-जैसे वाद्य बजाकर देवता विशेष के कार्यों का उल्लेख करता हुआ गाता है – वैसे-वैसे ही ‘औतारु’ (डंगरिया) नाचता जाता है । उसके शरीर में एक विशेष प्रकार की ‘कम्पन शक्ति’ प्रवेश करती है । जन-मानस मनौती मनाकर देवता को जागरी से नचवाते हैं और देवता को नाचने पर विपत्ति को टली हुई मानते हैं । आश्विन के महीने में ऐसे ‘जागर’ लगाये जाते हैं । स्थानीय देवी-देवताओं का पूजन ‘बैसी’ कहलाता है । जागरों में ग्वेल, गंगनाथ, हरु, कव्यूर, भोलानाथ, सेम और कलविष्ट आदि के जागर विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं ।

संस्कार गीत

संस्कार गीतों को यदि नारी-हृदय के गीत कहें तो अत्युक्ति न होगी । जन्म, छठी, नामकरण, यज्ञोपवीत तथा विवाह आदि के गीत संस्कार गीतों की श्रेणी में आते हैं । जिन्हें महिलाएँ अपने कोमल कण्ठ से बड़े प्यार से गाती हैं । ‘स्वकुनाखर’ (शकुन गीत) ऐसा गीत होता है जो प्रत्येक मंगल कार्य के अवसर पर गाया जाता है । गढ़वाल में ‘मांगलगीत’ इसी प्रकार का गीत है ।

ॠतु गीत

ॠतु विशेष के आगमन पर ऐसे गीत गाये जाते हैं । चैत्र मास से शुरु होने वाले ऐसे गीतों को ‘रितु रवैण’ कहते हैं । इसके अलावा कुमाऊँ के ॠतु गीतों में ‘काफलिया’, ‘रुड़ी’, ‘हिनौल’ और ‘होली’ विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं । फागुन के महीने में सर्वत्र होलियाँ गाई जाती हैं । गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट और सतराली आदि स्थानों की होलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं ।

कृषि सम्बन्धी गीत

कुमाऊँ में जब खेतों में रोपाई या गोड़ाई होती है तो वहाँ का मानव रंगीला हो जाता है । ऐसे समय जो गीत हुड़की के साथ गाये जाते हैं, उन्हें ‘हुड़किया बौल’ कहा जाता है । ‘गुडैल’ गीत गोड़ाई से सम्बन्धित है । ऐसे गीतों को गाने से पूर्व ‘भूमयाल’, ‘कालीनर’ देवों की प्रार्थना की जाता है कि वे भूमिपति के सदा अनुकूल रहैं । बाद में कथा प्रधान गीत (जैसे बौराण और मोतिया सौन का गीत) आदि गाये जाते हैं । खेती का काम ऐसे गीतों के साथ अति तीव्रता से होता रहता है ।

उत्सव तथा पर्व सम्बन्धी गीत

इन गीतों में आंचलिक विश्वासों और आचार-प्रथाओं का विशेष महत्व देखने में आता है । भादो शुक्ल सप्तमी और अष्टमी को कुमाऊँ की महिलाएँ, ‘डोर दुबड़’ का व्रत रखती हैं । ‘गवरा’ (गौरा) पूजन से सम्बन्धित गीत इस ब्रत के अवसर पर गाए जाते हैं । चैत्र के प्रथम दिन कन्याएँ ‘फुलदेवी’ का आयोजन वर्ष भर की खुशहाली के लिए करती हैं । सावन मास के पहले दिन हरियाला का त्यौहार हरियाली गीत के साथ मनाया जाता है । ‘खतड़वा’ का स्थानीय त्यौहार कुमाऊँ अंचल में आश्विन संक्रान्ति के दिन मनाया जाता है । मकर संक्रान्ति के दिन कुमाऊँ में ‘घुघतिया’ त्यौहार मनाया जाता है । इस दिन बालक एवं बालिकाएँ आटे के घुघते बनाकर कौवों को खिलाते हुए ‘घुघतिया’ गीत गाते हैं ।”काले कव्वा काले, का ले का ले”


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16 Responses

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