Naad || Naad in Music || Aahat and Anahat Naad || Anahat Naad || Types of Naad in Music || नाद

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के मुख्य भेद


नाद के मुख्यतः दो भेद होते हैं


आहत नाद


आहत नाद वायु के आघात से हृदय, कंठ और तालु इन स्थानों से उत्तपन्न होता है। यह नाद सगीतोपयोगी मना जाता है। आहत नाद से ही षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत, और निषाद सात स्वरों की उत्तपत्ति हुई है। अतः आहत नाद का संगीत से विशेष सम्बन्ध है यदि अनाहत नाद को मुक्तिदायक माना जाता है, तो आहत नाद को भवसागर से पार लगाने वाला बताया गया है।


अनाहत नाद


यह अनाहत नाद नाभि कमल में स्थित होकर सदैव बिना आघात के शब्दायमान होता है, किन्तु वह साधारणतया सुनाई नहीं देता है। कान को अंगुलियों से बंद करके सुनने से अनाहत नाद का आभास मात्र होता है, किन्तु योगी जन उस नाद बिंदु का ही ध्यान कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। अनाहत नाद संगीतपयोगी नहीं होता, क्योंकि यह सुनाई नहीं देता, किन्तु यही अनाहत नाद न होता, तो आहत नाद की भी उत्तपत्ति नहीं होती। अनाहत नाद से ही पंखा चलाकर वायु संचालित करना असम्भव है, उसी प्रकार यदि शरीर के अंदर अनाहत नाद न हो, तो आहात नाद को भी उत्तपन्न नहीं किया जा सकता।


नाद आहत एवं अनाहत


ध्वनि, संगीत का आधारभूत तत्व है। संगी टी में ध्वनि को ही नाद कहा जाता है। नाद ब्रम्हाण्ड की प्रत्येक चराचर वस्तु में व्याप्त है।
संगीत रत्नाकर के अनुसार, “ब्रम्हा नाद रूपों स्मृतः” अर्थात पराम पिता परमेश्वर ब्रम्हा नाद स्वरूप है। संगीत की उत्तपत्ति इसी नाद ब्रम्हा से मानी गई है।


नाद का अर्थ एवं परिभाषा


नाद शब्द ‘नाद’ धातु से बना है। ‘नाद’ धातु का अर्थ है अव्यक्त ध्वनि अर्थात जो ध्वनि व्यक्त नहीं है। इस अव्यक्त ध्वनि के ही व्यक्त रूप है – वर्ण,पद,वाक्य तथा स्वर इत्यादि।


“नकारं प्राणनायानं दकारमणलं विन्दुः।
जातः प्राणाग्नि संयोगात्तन नादोsभिधीयते।।”


अर्थात ‘नकार’ प्राण-वाचक (वायु वाचक) तथा ‘दकार’ अग्नि-वाचक है।
अतः जो वायु या अग्नि के योग से उतपन्न होता है, उसी को नाद कहते है।


“नकारः प्राणबीजः स्याद दकारो वहींरुच्यते।”


अर्थात नकार का अर्थ है प्राण और दकार ला अर्थ अग्नि, इसमें यह स्पस्ट है कि प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उतपत्ति होती है।
अर्थात शारंगदेव ने नाद की उत्तपत्ति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है।


“आत्मा विवक्षणामाsयं मनः प्रेरयते मनः।
देहस्थं विहृमाहन्ति से प्रेरयति मारुतं।।
ब्रम्हाग्रन्थिस्थितिः सोsथ क्रमादधर्व पथे चरम।
नाभिहृत्कन्ठ भुर्धास्येन्वाविर्भावयति ध्वनिम् ।।


अर्थात बोलने की इच्छा रखने वाली आत्मा ने मन को प्रेरित किया, मन ने शरीर में स्थित अग्नि को प्रेरित किया,अग्नि ने प्राण वायु को प्रेरित किया, अग्नि से प्रेरित होकर प्राण वायु ने नाद को उतपन्न किया, जो नाभि कमल से उठाकर ऊपर बढ़ता हुआ हृदय, कण्ड, तालु और मुख इन पाँच स्थानों से प्रतिध्वनित हुआ है।
हृदय के ऊपरी भाग में तीन नाड़ियाँ है, उसमे ही सम्मिलित तिरछी गई हुई 22 नाड़ियाँ और है। इन्ही 22 नाड़ियों से 22 ध्वनि या यूँ कहिए 22 श्रुतियाँ उतपन्न होती है। मानव देह में नाद की उत्पत्ति के मुख्य रूप से 5 स्थान माने गए हैं 1.नाभि 2. हृदय 3. कण्ठ 4. मस्तक 5. मुख
नाद से वर्ण, वर्ण से पद की ओर पद से वाणी की अभिव्यक्ति होती है, वाणी से ही सारा व्यवहार चलता है। अतः सम्पूर्ण जगत नाद के अधीन है। वैज्ञानिक आधार पर नाद की सर्वमान्य “स्थिरतथा नियमित आंदोलनों द्वारा उत्पन्न हुई संगीतोपयोगी ध्वनि को नाद कहते हैं।”


नाद के अन्य भेद


स्थान दृस्टि से नाद के अन्य भेद निम्नलिखित हैं
सूक्ष्म नाद – यह नाद नाभिकमल में स्थित रहता है। यही अनाहत नाद की अवस्था है।
अतिसूक्ष्म नाद – यह नाद हृदय में वास करता है।
पुष्ट नाद – इसे अव्यक्त नाद भी कहा जा सकता है। यह कंठांश्रित है।
अपुष्ट नाद – इसे अव्यक्त नाद भी कहा जा सकता है। यह तालू में स्थिर है।
कृत्रिम नाद – इसे मुख का आश्रय प्राप्त होता है।


नाद के लक्षण या गुण धर्म


नाद के तीन लक्षण या गुणधर्म प्रकार है
तारता अथवा उँचापन-नीचापन – तारता के द्वारा हम नाद के ऊँचेपन-नीचेपन को समझ सकते हैं। यह गन नाद की प्रति सेकेण्ड होने वाली आंदोलन सख्या पर निर्भर करता है। आंदोलन सक्या जितनी अधिक होगी, नाद तना उतना ही ऊँचा होगा तथा आंदोलन संख्या जितनी काम, होगी, नाद तना उतना ही निचा होगा।
तीव्रता अथवा छोटापन – बड़ापन – यह गन आघात की शक्ति पर निर्भर करता है। आघात जितना ही हल्का होगा, नाद उतना ही हल्का व कम दुरी तक सुनाई देगा। विशेषतः हम तीव्रता से यह जान पाते हैं कि ध्वनि वातावरण के कितने क्षेत्र को प्रभावित करता है।
नाद की जाती अथव गुण – इस गुण की विशेषता यह है कि इसमें अमुक वाद्य द्वारा बजने वाली ध्वनि की पहचान की जाती है। साधारण शब्द, में हम यह कहा सकते है कि नाद की जाती वाद्यों की बनावट एवं स्वयं-भू स्वरों पर निर्भर करती है। जाती से हमें ध्वनि की प्रकृति अथवा व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त होता है। इस प्रकार तारता नाद की प्रति सेकण्ड आवृत्ति पर, तीव्रता कम्प-विस्तार पर तथा जाती स्वरों पर निर्भर करता है।


नाद का महत्व एवं उपसंहार


उपरोक्त विवेचना के आधार पर यह पूर्णतः स्पष्ट है कि सृष्टि नाद के अधीन है। कल्लिनाथ के अनुसार, नाद एक ऐसा दृश्य तत्व है, जो सम्पूर्ण संसार के पत्येक स्थान पर व्याप्त है न कि संगीत वरन सम्पूर्ण लोक व्यवहार नाद पर आश्रित है।
संत “कबीर ने इसी नाद को लक्ष्य करके कहा है कि


“कबीर शब्द शरीर में, बिनि गुन बाजे तांत।
बाहर भीतर रमी रहा, ताते छूटी भ्राँत।।”


नाद की इन्ही विशेषताओं से संगीत ने रस निष्पत्ति होती है भाषा की अपेक्षा नाद की प्रभाव का क्षेत्र अधिक व्यापक है, भाषा भले ही कभी यथार्थ मनोभाबों को अभिव्यक्त करने में समर्थ न हो, परन्तु नाद कभी असफल नहीं होता। संसार में नाद विधा के एकीकरण को ‘गान विधा’ कहते है। अतः नाद के अधीन ही सम्पूर्ण जगत है,ऐसी कारन इसे ‘नाद बहना’ कहा गया है।


नादोत्पत्ति की वैज्ञानिक प्रिक्रिया


किसी भी तंत्री वाद्य को छेड़ने से तार से तार में नियमित कम्पन उतपन्न होती है। यह कम्पन अपने मूल स्थान A से उठकर ऊपर की ओर B तक जाती है। वहाँ से वह C तक जाती है, तब जाकर अपने स्थान A पर लौटती है। इस प्रकार नियमित कम्पन की लगातार आवृत्ति से ही नाद उत्पन्न होती है।


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