लोकगीत || लोकसंगीत || शास्त्रीय संगीत ||Lokgeet || Loksangeet || Ladis geet || Bundeli lokgeet

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भारतीय लोकसंगीत का विकास मानव के सांस्कृतिक विकास के साथ तथा इसकी उतपत्ति प्राकृतिक के साथ हुई। सांस्कृतिक जटिलता के साथ लोकसंगीत भी जटिल हो गया। भारतीय लोकसंगीत आज भी क्षेत्रीय अँचलो में मूल रूपों में सुरक्षित है। इसलिए इसका अध्ययन क्षेत्रीय वर्गीकरण के आधार पर किया जाता है ;जैसे – राजस्थान का लोकसंगीत, हिमाचल का लोकसंगीत आदि। इन सभी रूपों में लोकसंगीत आज भी जीवित है।

भारतीय लोकसंगीत (Indian Loksangeet)

भारत “अनेकता में एकता के सूत्र में बँधा है।” बहुरंगी जातियों, अनेक धर्मों के लोग, बहुरंगी सांस्कृतिक एवं बहुरंगी बाषाएँ यहाँ के संगम स्थल हैं। यहाँ जनजीवन में विविधता एवं विभिन्नता परिलक्षित होते हुए भी सांस्कृतिक एकता यहाँ के लोगों के जीवन में व्याप्त है। यहाँ भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है।
आवागमन की सुलभता एवं दूरदर्शन, रेडियो, इण्टरनेट की की सुविधा ने एक प्रदेश के संगीत को जनसमुदाय के लिए सुलभ किया है। आज जगह – जगह लोकोत्सवों का आयोजन होता है, जिसमें भारत के विभिन्न प्रदेशों से लोक कलाकार अपने – अपने लोकगीतों एवं लोकनृत्य शैलियों कों

प्रस्तुत करते हैं। लोकसंगीत जनजीवन में व्याप्त है। किसी भी देश प्रदेश का संगीत उसके लोकजीवन की सभ्यता – संस्कृति का दर्पण है। लोकसंगीत और लोकसंस्कृति का अटूट सम्बन्ध है तथा लोकस्कृति को लोकसंगीत से अलग नहीं किया जा सकता है। सामाजिक जीवन का कोई भी अनुष्ठान या लोकोत्सव लोकसंगीत के बिना अधुरा है। लोकसंगीत के माध्यम से सांस्कृतिक परम्पराएं लम्बे समय तक जीवित रहती है । अतः किसी भी प्रदेश का लोकसंगीत वहाँ की संस्कृति का अविभाज्य अंग होता है । लोकसंगीत में परम्परानुसार स्थानीय भासाओं में होने वाले गीत नृत्य आदि शामिल होते हैं । इसमें भारीतय संगीत का दर्शन मिलता है, जो भारतीय संस्कृति की देन है । अतः भारतीय ससंस्कृति के साथ विकसित संगीत ही भारतीय लोकसंगीत कहलाता है ।

लोकसंगीत की परिभाषाएँ (Definition of loksangeet)

लोकसंगीत की परिभाषाएँ निम्न है ।

पंडित ओमकारनाथ ठाकुर के अनुसार, “देशी संगीत की पृष्ट्भूमि हि लोकसंगीत है।”
महात्मा गांन्धी के अनुसार, “लोकसंगीत में चराचर जगत गाता है और नृत्य करता है अर्थात आनंद अनुभूति करता है”
रविन्दरनाथ टैगोर के अनुसार, “संस्कृति की सुखद सन्देश ले जाने वाली कला है ‘लोकसंगीत'”।
उपरोक्त परिभाषों के आधार पर कहा जा सकता है की भावभिविपत व लोकानुरंजन का ससक्त माध्यम लोकसंगीत है

लोकसंगीत की उत्पत्ति (Arrival of loksangeet)

लोकसंगीत की उत्पत्ति एक प्राकृतिक प्रक्रिया से हुई है जो मनुस्य के विकास के साथ ही प्रारम्भ हुआ ।, अतः लोकसांगीत का जन्म लोकमानस से हुआ है अर्थात मानव संस्कृति पर आधारित, मानव द्वारा नृमित मानव समाज से प्रचलित संगीत ही लोकसंगीत है ।

लोकसंगीत शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है लोक और संगीत । इसका सामान्य अर्थ है लोक का संगीत । इसमें प्रयुक्त लोक शब्द अति प्राचीन है ।
जिसका प्रयोग विभिन्न अर्थो में विभिन्न कालखंडों में हुआ । महाभारत मे ‘लोक’ शब्द का प्रयोग व्यास ने समाज के लिए किया। इसी प्रकार ऋग्वेद में ‘देहिलोकम’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसमे ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘स्थान’ से है। गीत में ‘लोक’ शब्द तथा लौकिक आचारों की महत्ता स्वीकार की गई है। सम्राट अशोक के शिलालेखों में ‘लोककल्याण’ के आदेश मिलते हैं, परन्तु आज ‘लोक’ शब्द का प्रयोग परम्परा का रक्षक, सहेजने वाला आदि के अर्थ से लिया जाता है। इस शब्द में नगरीय व ग्रामीण दोनों ही संस्कृतियों का सम्बन्ध ही, जिसम भावों की प्रधानता होती है। लोकसंगीत शब्द अंग्रेजी के फोक म्यूजिक (Folk music) शब्द का हिंदी अनुवाद है । यह लो संगीत वर्तमान में भारत के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति को उजागर करते है

लोकसंगीत का विकास (Development of loksangeet)

लोकसंगीत का विकास मानव के सांस्कृतिक विकास के साथ हुआ । जैसे जैसे संस्कृति जटिल होती गयी वैसे वैसे लोकसंगीत की जटिलता भी बढ़ती गयी । भारतीय लोकसंगीत का विकस अति प्राचीन से है अर्थात प्रारंभिक काल से ही मानव ह्रदय में प्रकृति एवं जीवन सौंदर्य के प्रति आकर्षण, अनुभूति व उद्गार उत्पन्न हुए । इन उद्गारों की अभिव्यक्ति जब मानव अपनी उल्लासमयी भावनाओं, अस्पष्ट शब्दयुक्त स्फुटन के रूप में करता है, तभी से लोकसंगीत का अंकुर फूटा, अतः अनादि काल से हमारा भारतीय संगीत दो शाखाओं के रूप में प्रचारित, पल्लवित व पुष्पित होता रहा है।

भारतीय लोकसंगीत रूपी वृक्ष की दो शाखाएँ हैं ।

संगीत

लोकसंगीतशास्त्रीय संगीत

ये दोनों शाखाएं अपने आप में स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं । हमारा शास्त्रीय संगीत लोकसंगीत का हि विकसित रूप है । प्राचीनकाल में मानव में थोड़ा बहुत बुद्धि का विकास हुआ, तब उसने अपनी विकसित होती भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आलाप लेना आरम्भ किया या संगीत गुनगुनाया उस संगीत को ही लोकसंगीत की संज्ञा दी गई, जो पीढ़ी – दर – पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है। इसके विकास क्रम में वाद्ययंत्रों के उपयोग महत्ता भी देखि गई उदाहरणस्वरूप अकबर के समय तक सारंगी का प्रयोग लोकसंगीत तक था। वहीं कबीर के समय इसकी व्यापकता थी, जिसके माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति, प्रेम, शोक, ईश्र्या, अदि को प्रकट किया जाता था। आधुनिक समय में इसमें बदलाव आया, जो क्षेत्रों में संरक्षित हो गया। वर्तमान भारतीय लोकसंगीत का मूलस्वरूप आज भी वहाँ के अँचलों में सुरक्षित है। लोकसंगीत सरल, सहज होने के कारण शीघ्रता से जनमानस को आकर्षित करता है। अंततः हम यह कह सकते है कि विभिन्न प्रांतो (भारत में ) की प्रादेशिक संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, बोल – चाल, रहन – सहन,रीती – रिवाज, तीज – त्यौहारों आदि से जुड़े सभी रस व भावों की संगीतपूर्ण अभिव्यक्ति ही ‘लोकसंगीत’ कहलाती है।

शास्त्रीय संगीत

  • भारतीय शास्त्रीय संगीत की जड़ें प्रायः ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग गीतों में खोजी जाती हैं। वैदिक धार्मिक गीतों के अतिरिक्त भिन्न लोकगीतों के मुलभावों ने भी शास्त्रीय संगीत के विकास में योगदान दिया।
  • भारत के प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों में कत्थक नृत्य, भरतनाट्यम, ओडिसी, कथकली, मणिपुरी, कुचिपुड़ी तथा मोहिनीअटट्म है, जिसमे लोकगीतों का भाव दृष्टिगत होता है।

 बुंदेली लोकगीत (Bundeli lokgeet)

1) बुन्देली भाषा उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमारेखा पर स्थित होशंगाबाद के आस पास के क्षेत्र में बोली जाती है।इसमें लोक साहित्य की प्रचुरता काफी है।यह भी माना जाता है कि प्रसिद्ध लोक ग्रन्थ आल्हा मूलत: बुंदेली की एक उपबोली बनाफरी में लिखी गई है। बुन्देली बोली में ‘य’ ‘ज’ ‘म’ ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ हो जाता है। जैसे कि यदि को जदि, विचार को बिचार आदि। इसके अलावा सर्वनाम रूपों में मध्यम पुरुष व उत्त्म पुरुष संबंध कारक में ‘रो’ के स्थान पर ‘ओ’ हो जाता है। जैसे कि तुम्हारो, तम्हाओ, हमारो, हमाओ आदि। उत्तर प्रदेश विभिन्न प्रांतों में सांस्कृतिक एवं सांगीतिक दृस्टि से एक मत्वपूर्ण भूखण्ड है। यह लोकसंगीत, लोक कलाओ आदि सभी में अपनी परम्परा, रीती – रिवाज व रुचियों को अभिव्यक्त कर देता है। यह प्रदेश अपने ग्रामीण जीवन व साहित्यिक दृस्टि से संपन्न प्रदेश है।

2) उत्तर प्रदेश के भिन्न – भिन्न अँचलों का संगीत अपनी मनमोहक छटा से इस प्रदेश को एकता के सूत्र में बाँधता है। उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल अधिक है। अतः यहाँ पर कई प्रकार की संगीत शैलियाँ प्रचलित है; जैसे – अवध,ब्रज तथा भोजपुरी लोकगीत आदि। कहा जाता है की यहाँ बिस कोस पर पानी बदल जाता है। अतः भाषा में अंतर संगीत में भी अंतर पाया जाता है।

3) उत्तर प्रदेश को ‘लोकसंगीत की खान’ कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के लोकसंगीत को विभिन्न क्षेत्रों में बाँटकर देखा जाता है। यहाँ विभिन्न क्षेत्रीय लोसँगीत बड़े क्षेत्रों में फैलकर अपनी पहचान बनाये हुए है। इनका विवरण निम्न है।

बुंदेली लोकगीत

जनमानस अपना उल्लास और कसक लोक गीतों कें माध्यम से व्यक्त करता है। सौन्दर्य, मधुरता, करुणा और वेदना से सराबोर ये गीत सैकड़ों वर्षों की परम्परा में जनमन में इतने  गये हैं कि किसी को इन गीतों में ‘उत्स’ का पता नहीं होता है। यदि किसी गीत का रचनाकार ज्ञात होता है तो उसे लोकगीत की श्रेणी में परिगणित नहीं किया जाता है।

इन गीतों का लोकत्व यह है कि इनकी अपनी विशिष्टि धुनें यमुना से नर्मदा तक और चम्बल से टौंस तक सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में एक जैसी गायी जाती रही हैं,  और गायी जाती रहेंगी। स्थान दूरी पर होने वाले भाषागत या उच्चारणगत परिवर्तनों के अलावा उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। स्वर, रागरागिनी वही रहती है, केन्द्रीय भाव वही हैं, एक दो पंक्तियों को छोड़कर गीत ज्यों के त्यों मिलते हैं।

यह गीत लिखित में कम, वाचिक परम्परा में अधिक हैं। इस क्षेत्र में सर्वेक्षण करते समय मुझे यह सुखद आश्चर्य हुआ कि यह गीत उन महिलाओं के कंठों में सबसे अधिक सुरक्षित हैं, जिन्होंने न तो पोथी पढ़कर अक्षर ज्ञान पाया और न जो कागज का एक अक्षर बाँच सकती हैं परन्तु उनमें स्मरण शक्ति गजब की है। उन्होंने परम्परा से इसे सुना, सुनकर यदि किया और वे अपनी पीढ़ियों को देने को तैयार हैं किन्तु आज के कथित शिक्षाधारी युवक/युवतियाँ इस सांस्कृतिक विरासत को ग्रहण करने से कतरा रहे हैं। इस विलुप्तोन्मुखी विरासत को जितने शीघ्र लिपिबद्ध, स्वरबद्ध तथा अन्य तरीकों से संरक्षित किया जा सके वह लोक संस्कृति के हित में है।

बुन्देलखण्ड में घर-घर होने वाले पारिवारिक समारोह तथा मांगलिक आयोजन इन्हीं गीतों और संगीत के साथ आयोजित होते हैं। हृदय की कोमल भावनायें इन गीतों में सहजता के साथ व्यक्त हुई हैं। इस क्षेत्र में प्राप्त लोकगीतों को निम्न कोटि में विभाजित किया जा सकता है –

  • संस्कार गीत
  • देवी देवताओं के पूजा विषयक गीत
  • बालक/बालिकाओं के क्रीड़ात्मक उपासना गीत
  • ऋतु विषयक गीत
  • शृंगार गीत
  • श्रमदान गीत
  • जातियों के गीत
  • शौर्य /प्रशस्ति गीत
  • स्फुटगीत

बुन्देलखण्ड आस्था और भक्ति का प्रदेश है। यहाँ आदर्शों के प्रति आस्था ने लाला हरदौल जैसे मनुष्य को देवत्य प्रदान किया है। विष पीकर भी भावज के चरित्र की निष्कलंकता उन्होंने प्रमाणित की, बहिन की याचना की रक्षा की और इसने उन्हें अमरत्व दिया। हरदौल यहाँ के लोकदेवता हैं। गीत हर विवाह का मांगलिक कार्य में गाये जाते हैं। हनुमान जी पवन के पुत्र हैं, आँधी-अंधड़ से विनाश को रोकने वाले हैं, उनकी निर्विध्नता के प्रति यह आस्था लोकगीतों में मुखरित हुई है। राम और कृष्ण तो यहाँ घर-घर बसे हैं। हर कार्य अवसर पर उनकी पूजा का विधान है, उनके जीवन का अनुरक्षण है। कार्तिक-स्नान पर्व में महिलायें उनके चरित्र विषयक गीत प्रभात बेला में झुण्डों में निकलकर गाती है।

अवधि लोकगीत (Avadhi lokgeet)

  • अवधि लोकगीत का साहित्य अत्यंत विपुल एवं समृद्ध है। अवधि एवं भोजपुरी गीतों में बहुत समानता है, परन्तु दोनों क्षेत्रों के गीत अलग – अलग हैं। अवध लोकगीत की तीन मुख्य विशेषताएँ है – प्रथम इसके गीतों में राम महत्ता यानी लोकगीतों में राम का वर्णन, दूसरी प्राकृतिक जीवन के साथ गहरा जुड़ाव तथा तीसरी लोकगीतों में सामान्य जीवन से साधारणीकरण। इन लोकगीतों में मिट्टी की गंध मुखरित होती है।
  • यही गीत भावना के स्टार पर मनुष्य से जोड़ते हैं। इन गीतों में जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के विभिन्न संस्कारों की झाँकी देखने को मिलती है तथा सुख – दुःख, शकुन – अपशकुन, लोकविश्वास, धर्मिक व सांस्कृतिक उत्स्व, प्राकृतिक सौंदर्य आदि इन लोकगीतों का वर्ण्य – विषय है।
  • अवधि लोकगीत में संस्कार संबंधी गीतों में सोहर के गीत गाए जाते हैं।  यह गीत पुत्र जन्म,मुण्डन संस्कार पर गाया जाता है। तथा विवाह गीतों में सहाना, कर्मटगीत, गौना आदि गीतों का प्रचलन है।
  • ऋतु संबंधी गीत में बारहमासा गीत, जिस में ऋतु वर्णन किया जाता है, उनमे कजरी, चौमासा, चैता, डेढ़ला, फगुआ,चहका आदि प्रमुख हैं, जिसमे ऋतु वर्णन होता है।
  • इसके साथ अवध में जातियों से सम्बन्धित गीत, श्रम – परिहार के गीत, खेल सम्बन्धी गीत तथा धार्मिक गीत जिसमे व्रत, उत्सवों तथा विभिन्न देवी – देवताओ के गीत होते हैं।

ब्रज लोकगीत (Brij ke lok geet)

  • ब्रज का जान – जीवन श्रीकृष्ण के इर्द – गिर्द घूमता रहता है। उनके इष्ट श्रीकृष्ण अपने जन्म से लेकर समाप्त जीवन को अपने रंग से सराबोर किए हुए हैं। अतः ब्रज संस्कृति कृष्णमय हो गई है। कृष्ण की लीलाएँ उनके उनके जीवन का आधार स्तम्भ है। ब्रज,भारत का एक मुख्य तीर्थ स्थान है।
  • ब्रज में जन्माष्टमी बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। लोग मंदिरों में एकत्रित होकर कृष्ण से सम्बंधित गीत गाते हैं। सम्पूर्ण ब्रिज का वातावरण कृष्णमय हो जाता है। इस प्रकार ब्रज के लोकगीतों में भारत की सांस्कृतिक एकता का परिचय मिलता है।
  • ब्रज में उत्सव एवं त्यौहारों की सदैव विशेषता रही है। प्रत्येक उत्सव या त्यौहार आते हीब्रज की नर – नारी गायन – वादन में आनंद – विभोर हो जाते हैं। यहाँ के संगीत में भक्ति – भावना का प्रभाव अधिक मिलता है, उत्सवों की रोचकता के लिए लोकगीतों का गायन आवश्यक है।

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2 Responses

  1. Sadhana says:

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