संगीत का अन्य विषयों से अन्तर्संबंधात्मक पहलु || संगीत एवं चिकित्सा || MUSIC AND THERAPY || SANGEET EVAM SAHITY || CLASSICAL MUSIC || आध्यात्मिक विकास

संगीत का अन्य विषयों से अन्तर्संबंधात्मक पहलु
प्राचीनकाल में शिक्षा सभी विषयों को पृथक – पृथक करके दी जाती थी। लेकिन जैसे – जैसे शिक्षा दर्शन के क्षेत्र का विकास हुआ , तो यह धारणा विकसित हुई है कि सभी विषयों में कहीं न कहीं समान तत्व पाया जाता है , जिसके कारण किसी भी विषय का ज्ञान कराने के लिए उससे संबंधित किसी अन्य विषय का सहारा लेकर सुगमता से अध्ययन कराया जा सकता है , जिसमे बालक का अर्जित ज्ञान स्थायी हो सकेगा तथा शिक्षा उसके व्यक्तित्त्व का एक अंग बन जाएगी।
सह – संबंध की यह विचारधार तर्कसंगत , मनोवैज्ञानिक व व्यावहारिक है। मनोविज्ञान के अनुसार ज्ञान की विविधता की अपेक्षा ज्ञान की उपदेयताः अधिक उपादेय उपयोगी है। इसलिए छात्रों को प्रत्येक विषय अन्य विषयों से संबंधित करके पढ़ना हितकर है। विषयों के पारस्परिक संबंध को ही हम शिक्षा के क्षेत्र में विविध विषयों का सह – संबंध कहते हैं।
विषयों को अन्तर्संबन्धित करने की आवश्यकता
किसी भी विषय का ज्ञान कराने ( बोध कराने ) के लिए दिए जाने ज्ञान को रोचक ,स्पष्ट , सरल व व्यावहारिक बनाने हेतु शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए विषयों को परस्पर अन्तर्संबन्धित करने की आवश्यकता पड़ती है। विषयों में सह – संबन्ध दो प्रकार के होते है –
(1 ) सुनियोजित सह – संबन्ध – इसके अंतर्गत अध्यापक पूर्व में ही विषय ज्ञान प्रक्रिया में अन्य विषयों से सह – सम्बन्ध पूर्ण नियोजित करके शिक्षण अधिगम कराता है।
( 2 )आकस्मिक सह – सम्बन्ध – इस प्रक्रिया के अंतर्गत कक्षा – कक्ष में अध्ययन कराते समय किसी अन्य विषय का परिचय आने सेक्स उस संबंद्धित तथ्य को जोड़ता है , तो उसे आकस्मिक सह – सम्बन्ध कहते हैं।
किसी भी विषय क्क अन्य विषयों से सह – सम्बन्ध स्थापित करते हुए अध्यापन कराने से निम्न्लिखित लाभ होते हैं
* एक विषय की सहायता से दूसरे विषय का अध्ययन करने में बालक के मस्तिष्क में विविध साहचर्य (Associations or Bonds)स्थापित होते है , जो इस ज्ञान को अधिक समय तक ( स्थाई रूप से ) धारणा करने में तथा आवश्यकतानुसार पुनसर्मरण करने में सुविधा प्रदान करते हैं।
* विविध विषयों की समानता छात्र में , ज्ञान प्राप्ति के प्रति रूचि व प्रेरणा का विकास करती है।
* सह – सम्बंद , बालकों को अर्जित ज्ञान का सामान्यीकरण प्रदान करता है , जिसके बालकों को ज्ञान का उपयोग करने में सुविधा होती है।
* स्वाभाविक सह – संबन्ध की कृतिमता को दूर करता है।
स्कुल पाठ्यक्रम व उच्च शिक्षण में संगीत एक ऐसा विषय है , जो अन्य सभी विषयों से किसी -न – किसी रूप में
सम्बंधित है , यहां हम संगीत और उसका विभिन्न विषयों से अन्तरसंबंध किसी प्रकार कर सकते हैं ,इन तथ्यों से स्पस्ट करेगें। वे विभिन्न विषय निम्नांकित हैं।
संगीत एवं साहित्य
* साहित्य के माध्यम से हम किसी भी समय की सभ्यता , संस्कृति , आर्थिक स्थिति ,धर्म लोकरुचि एवं भाषा को जान सकते हैं। साहित्य के माध्यम से काव्य ,नाटक , कहानी गद्य ,पद्य रचना , निबंध आदि का रसास्वादन किया जा सकता है।
* संगीत एवं साहित्य भी एक – दूसरे के पूरक हैं। संगीत के विविध रूप साहित्य पर निर्भर है , जैसे शास्त्रीय संगीत की विभिन्न शैलियों की गीत रचाना ,जो अलग – अलग भाषाओं में लिखी होती है ,जो हमारे साहित्य पर आधारित होती है। इस प्रकार नाटक – नृत्य नाटिका की विषय – वास्तु , लोकगीत ,फ़िल्मी गीत ,सुगम संगीत की रचनाएँ आदि भी साहित्य अर्थात किसी – न – किसी भाषा में लिखी जाती हैं।
अतः हम कह सकते हैं कि संगीत की भाषा रूप में अभिव्यक्तिय ही साहित्य है , तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
संगीत एवं चिकित्सा
* संगीत एवं चिकित्सा का इतना घनिष्ट सम्बन्ध है की कई चिकित्सक संगीतज्ञ भी हैं। इसका उदाहरण है भारत के डॉ. एल. सुब्रमण्यम जिन्होंने वियाना , न्यूयॉर्क , लन्दन आदि शहरों में चिकित्सकों के वाद्यवृन्द Doctor’s Orchestra तथा Hospital Choirs उत्तम स्तर के तैयार किए हैं।
* आधुनिक वैज्ञानिक ने शरीर के विविध कार्यकलापों पर पड़ने वाले संगीत के प्रभाव का अध्ययन कर स्पष्ट किया है कि स्वतंत्र नाड़ी संस्थान (Autonomic Monus System) के कार्य ;जैसे – रक्तचाप नाड़ी की गति , श्वसन तथा मांसपेशियों का समन्वय आदि सभी व्यक्ति की संगीत के प्रति संवेगात्मक प्रतिक्रिया करने की क्षमता , अभिरुचि व अभिवृत्ति संगीत पर निर्भर करती है ।
* चिकित्सकों के रूप में अनेक कार्यक्षेत्रों में संगीत की सेवाएँ ली है , इसका प्रयोग सामान्य वातावरण सम्बन्धी शामक के रूप में प्रसूति वार्ड में , प्रसव के पूर्व व पश्चात नवजात शिशुओं को लोरियाँ तथा माँ की हृदय धड़कन की ध्वनि का अनुकरण करने के लिए तथा मानसिक रूप से विकृत रोगियों के केंद्रों में भी किया , जिसके परिणामस्वरूप यह परिणाम प्राप्त हुआ की संगीत के प्रयोग से सभी को स्वास्थ्य लाभ हुआ।
* एक अन्य प्रयोग में शिशुओं के सामने शांत व गीतात्मक संगीत बजाया गया , जिससे शिशुओं के समायोजन करने के प्रयासों के सकारात्मक परिणाम प्रदर्शित किए। अतः चिकित्स्कों का मानना है की चिकित्सा विज्ञान में रोगी का इलाज करने में संगीत बहुत सहायक है।
नैतिक उन्नयन
मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्ति में ऐसी कई मूल प्रवृत्तियों की विवेचना की है जिनका की समाज में अभिव्यक्ति उचित नहीं है। इनमें क्रोध, एकाधिकार और सेक्स की मूल प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं। कला के द्वारा इन मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण होता है जिससे व्यक्ति के नैतिक और व्यावहारिक स्तर उन्नयन होता है।
कला शिक्षण की ज़रूरत और प्राथमिक उद्देश्य
कला शिक्षण के अभाव में न केवल हमारी वर्तमान जीवन-यात्रा असुन्दर हो गई है बल्कि हमारे अतीत की रस-सृष्टि द्वारा निर्मित रचनाओं की सौन्दर्य-निधि से भी हम वंचित हुए जा रहे हैं। हम लोगों की परखने की दृष्टि तैयार नहीं हो सकी। फलस्वरूप, देश में चारों ओर बिखरी चित्रकला, मूर्तिकला एवं स्थापना के सौन्दर्य को समझाने के लिए विदेशियों की आवश्यकता पड़ी। आधुनिक कला-कृतियों का भी जब तक विदेशी बाज़ारों में मूल्यांकन नहीं हो जाता तब तक हमारे यहाँ उनका आदर नहीं होता। यह हमारे लिए लज्जा की बात है।
इनके निराकरण के लिए क्या किया जाए, इस पर विचार किया जाए। कला शिक्षा की पहली मांग है कि प्रकृति को एवं अच्छी कलात्मक वस्तुओं को श्रद्धा सहित देखा जाए, उनके निकट रहा जाए और जिन व्यक्तियों का सौन्दर्यबोध जागृत है, उनसे उस सम्बन्ध में चर्चा करके कलाकृति के सौन्दर्य को समझा जाए। विश्वविद्यालयों का यह कर्तव्य है कि अन्य विषयों के साथ-साथ वे कला विषय को भी पाठ्यक्रम में रखें, परीक्षा की दृष्टि से कला को अनिवार्य विषय मानें और विद्यार्थी प्रकृति के निकट सम्पर्क में आ सकें, इसकी व्यवस्था करें। अंकन-पद्धति की शिक्षा से विद्यार्थियों की अवलोकन शक्ति का विकास होगा और इससे साहित्य, दर्शन, विज्ञान इत्यादि विषयों के क्षेत्र में भी उन्हें सही दृष्टि प्राप्त होगी। विश्वविद्यालयों की परीक्षा पास करने से ही कोई बड़ा कवि नहीं बन जाता। उसी तरह विश्वविद्यालय में कला की शिक्षा प्राप्त करके ही हर लड़का/लड़की अच्छा कलाकार नहीं बन सकेगा। ऐसी आशा करना भूल होगी।
आध्यात्मिक विकास
भारतीय विद्वानों ने कला को ईश्वरीय कला की प्रतिकृति कहा है, जो कला के ब्रह्म से स्थापित होने वाले संबंध को प्रकट करता है। जब कलाकार स्वयं में केन्द्रित न रहकर ईश्वर की रचना से आनंदित होता है और उसकी रचना का अनुकरण करता है, तब उसे परम आनन्द की प्राप्ति होती है, जो आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है।
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