राग रागिनी वर्गीकरण को विस्तार से समझाए ? || RAAG – RAAGINI KO VISTAAR SE SAMJHAAYEN || CLASSICAL MUSIC || राग-रागिनी पद्दति

शेयर करें |

Q – राग – रागिनी वर्गीकरण को विस्तार से समझाए ?

Ans-राग – रागिनी वर्गीकरण –  मध्यकाल की यह विशेषता थी की कुछ रागों को स्त्री और कुछ को पुरुष मानकर के रागों की वंश – परम्परा मानी गई। इसी विचारधा के आधार पर राग – रागिनी पद्धति का जन्म हुआ। इसमें मतैक्य न रहा और मुख्य चार मत हो गए। प्रथम दो मतानुसार प्रत्येक राग की 6 – 6  तथा अंतिम दो मतानुसार प्रत्येक की 5- 5   रागिनियाँ मानी जाती थी। इन रागों के 8 -8  पुत्र चारों मतों द्वारा मान्य थे। इस प्रकार प्रथम दो मतानुसार 6 राग व 36 रागिनियाँ और अंतिम दो मतानुसार 6 राग व 30 रागिनियाँ मानी जाती थी।  चारों मतों का विवरण इस प्रकार है –

(1) शिव अथवा सोमेश्वर मत – इस मतानुसार 6 राग श्री ,बसंत , पंचम , भैरव , मेघ व नट नारायण माने जातें थे और प्रत्येक राग की 6 -6 रागिनियाँ मानी जाती थी। उसके बाद पत्र

(2) कृष्ण अथवा कल्लिनाथ मत – इस मत के 6 राग प्रथम मत के ही समान थे , किन्तु उनकी 6 रागिनियाँ उनके पुत्र – वधुये शिव मत से भिन्न थी। 

(3) भरत मत – इस मतानुसार भैरव , मालकोश , हिंडोल , दीपक ,श्री और मेघ राग , प्रत्येक की 5 -5 रागिनियाँ 8 – 8 पुत्रऔर पुत्र – वधुये मानी जाती थी। 

(4) हनुमान मत – इसके 6  राग भरत मत के सामान थे। प्रत्येक की 5 – 5 रागिनियाँ और 8 – 8 पुत्र माने गए जो भरत से भिन्न थे 

* शिव मत के 6 राग और 36  रागिनियाँ –

(1) श्री – मालश्री , त्रिवेणी , गौरी ,केदार मधुमाधवी ,पहाडिका । 

(2) बसंत – देशी , देवगिरि , वराटी , तोड़िका , ललिता , हिंदोली। 

(3) भैरव – भैरव , गुजरी , रामकली , गुनकिरी , बंगाली ,रोधवी। 

(4) पंचम – विभाषा , भूपाली , कर्णाटि , नड़हंसिका , पालवी , पटमज । 

(5) वृहन्नाट – कामोदी , कल्याणी , अमरी , नाटिका सारंगी , नट्टहम्बीरा। 

(6) मेघ – मल्लारी , सोरठी , सावेरी , कोशिकी , गांधरी हरशृंगार।

* कृष्ण मत के 6 राग और 36 रागिनियाँ –

(1) श्री – गौरी , कोलाहल ,धवल , वरोजाति , मालकोश , देवगांधार। 

(2) बसंत – अधाली , गुणकारी , पटमंजरी , गौरगिरि , धाकि। 

(3) भैरव – भैरवी , गुर्जरी , बिलावली बिहाग , कर्नाट , कानड़ा। 

(4) पंचम – त्रिवेणी , हस्ततरेतहा , अधिरि , कोकभ , बरारी , आसावरी। 

(5) नटनारायण – तिबंकि , त्रिलंगी , पूर्वी , गांधारी , रामा , सिंधु मल्लारी। 

(6) मेघ – बंगाली , मधुरा , कामोद , धनाश्री , देवतीर्थी , दिवाली। 

* भरत मत के 6 राग व  30 रागिनियाँ – 

(1) भैरव – मधुमाधवी , ललिता , बरोरी , भैरवी , बहुली। 

(2) मालकोश – गुर्जरी , विद्यावती , तोड़ी , खम्बावती , ककुभ। 

(3) हिंडोल – रामकली , मालवी , आसावरी , देवरी , केकी। 

(4) दीपक – केदारी , गौरी , दावती , कामोद , गुर्जरी। 

(5) श्री – सैंधवी , काफी , ठुमरी , विचित्रा , सोहनी। 

(6) मेघ – मल्लारी , सारंग देशी रतिवल्लभ ,कानरा। 

* हनुमान मत के 6  राग व 30 रागिनियाँ –

(1) भैरवी – मध्यमादि , भैरवी , बंगाली , बराटिका , सैधवी। 

(2) कौशिका – तोड़ी , खम्बावती , गौरी , गुणर्की , ककुभा। 

(3) हिडोल – बेलावली , रामकिरी , देशाट्या , पखमंजरी , ललिता 

(4) दीपक – केदारी , कानड़ा , देशी , कामोद , नाटिका। 

(5) श्री – बासंती , मालवी , मालश्री , धनासिका , आसावरी। 

(6) मेघ – मल्लारी , देशकारी , भूपाली , गुर्जरी , टंका। 

कौशिका का आधुनिक नाम मालकोश है।                                                                                                       

इसप्रकार राग – रागिनियाँ की वषावली चल पड़ी। उपर्युक्त चारों मतों में श्री , भैरव तथा हिंडोल इन तीनो रागों को मुख्य 6 रागों में तो सम्मिलित किया गया किन्तु आगे चलकर किन्ही भी दो वर्गीकरणों में समता नहीं रही। आज यह बताना बड़ा ही मुश्किल है की रा – रागिनी पद्धति में स्वर – मांय , स्वरुप – साम्य अथवा दोनों का ध्यान रखा गया था क्योकि मध्यकालीन राग – रागिनियाँ आधुनिक रागों से भिन्न थी। 

 राग-रागिनी पद्दति

पशु पक्षियों जैसा ही, मनुष्यों के पास भी शुरुआत में सिर्फ बोली थी, कोई भाषा नहीं थी। धीरे धीरे सभ्यता के विकास के साथ शब्दों के स्वरुप तय हुए, व्याकरण तैयार हुआ और अलग अलग सभ्यताओं के लिए अलग अलग भाषाएँ बनी।

अभी के भारत की संस्कृति ही देख लें तो कई भाषाओँ के साथ साथ कई बोलियाँ भी मिल जायेंगी। जैसे ये भाषा के साथ होता है, वैसे ही ये संगीत के लिए भी होता है। एक सरगम और संगीत के एक प्रारूप के तय होने के साथ ही लोकगीतों से अलग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का उदय हुआ

भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भी भेद होता है, राग कम हैं और रागिनियाँ अधिक। रागों के लिए भाव भी होते हैं, परिवार भारत में महत्वपूर्ण इकाई है, इसलिए हर राग का परिवार भी होता है।

धर्म से भारतीय संस्कृति के जुड़े होने के कारण हर राग, नटनागर यानि भगवान शिव से भी जुड़ा है। पांच राग भगवन शिव के पांच मुख से निकले बताये जाते हैं।

उन्नीसवीं सदी के शुरुआत तक यही राग-रागिनी पद्दति भारतीय शास्त्रीय संगीत के वर्गीकरण के लिए इस्तेमाल होती थी।

सुबह की शुरुआत का राग भैरव (भूमि तत्व), हिंडोल (आकाश तत्व), दीपक (अग्नि तत्व), श्री (वायु तत्व) और मेघ (जल तत्व) शिव के हैं और छठा मालकौंस राग पार्वती का है।

ऐसे चार मत होते थे, जिनमें से ये भरत मत के रागों के नाम हैं। भरत मत में हरेक राग की पांच पांच रागिनियाँ, आठ पुत्र राग और आठ वधु मानी जाती थी। हनुमत मत में भी रागों के नाम यही थे। रागिनियों, पुत्र रागों इत्यादि की गिनती बदलती थी। शिव मत के अनुसार भी छः राग माने जाते थे।

प्रत्येक की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र मानते थे। इस मत में राग भैरव, राग श्री, राग मेघ, राग बसंत, राग पंचम, और राग नट नारायण होते थे।

सन 1810-20 के बीच इस पद्दति की आलोचना शुरू हुई और सुधार की जरूरत महसूस की जाने लगी। ये काम पचास साल बाद शुरू होना था।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म ही 1860 में हुआ (देहावसान-1936)। अधिकांश उत्तर भारत में जो आधुनिक थाट पद्दति आज जानी जाती है, उसके जन्मदाता पंडित भातखंडे थे। उन्होंने 1640 के आस पास के कर्णाटक शैली के विद्वान पंडित वेंकटमखिन की शैली के आधार पर वर्गीकरण का प्रयास शुरू किया

बरसों की मेहनत से वो दस प्रमुख थाट में भारतीय शास्त्रीय संगीत को बाँट पाए। बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावारी, भैरवी और तोडी थाट में आज संगीत बांटा जा सकता है। जैसे मालकौंस को भैरवी थाट में डाल सकते हैं, राग श्री को पूर्वी थाट में डालेंगे।

थाट को परिवार के उपनाम की तरह समझिये। जैसे किसी के घर शादी का कार्ड देने आया कोई व्यक्ति पारिवारिक उपनाम से फलां परिवार को सादर आमंत्रण लिखकर छोड़ सकता है। उस आमंत्रण के उपनाम से कई लोग पहचाने जाते हैं इसलिए परिवार के कई लोगों में से एक या कुछ व्यक्ति चले जायेंगे।

थाट का बनना गणित पर आधारित है। सरगम के सात स्वरों में से पांच को विकृति दी जा सकती है, यानि कोमल और तीव्र स्वर भी होते हैं। इस तरह कुल सात शुद्ध स्वर और पांच विकृत, बारह स्वर होते हैं।

अब अगर पर्मुटेशन-कॉम्बिनेशन इस्तेमाल करें और सा, पा को केवल शुद्ध स्वर, और रे, गा, म, धा, और नी का एक (कोमल या तीव्र) रूप इस्तेमाल करें तो कुल 32 स्वरुप बनेंगे। अपनी तलाश में पंडित भातखंडे को जो दस थाट प्रबल दिखे, उन्होंने उसमें ही सबको बांटा।

ये जो ज्यादातर थाट हैं, इनसे मिलते जुलते से पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के चर्च मॉड भी मिल जाते हैं। एक अंतर ये कहा जा सकता है कि हाई ऑक्टेव पिच के लिए चर्च बच्चों का बंध्याकरण करके उनसे गवाता था। ऐसे एक गाने लायक किन्नर बच्चे के बंध्याकरण में कई बच्चों की मौत भी हो जाती थी

बाद में ये वहशी हरकत ख़त्म हुई तो ऑपेरा के कई हिस्से ही दोबारा तैयार करने पड़े। जो पुरानी पद्दति थी उसे गाने लायक बचपन से बंध्याकरण करके बच्चों को आज तैयार नहीं किया जा सकता। खुशकिस्मती से भारतीय परम्पराओं में ऐसी अमानवीयता नहीं होती, इसलिए रागों को गायब नहीं करना पड़ा।

ये जरूर है कि एक ही व्यक्ति का इतने वृहदाकार संगीत शास्त्र पर काम पूर्ण हो, ऐसा थोड़ा कठिन है। इस वजह से पंडित भातखंडे का वर्गीकरण भी पूरा नहीं माना जाता। दस थाटों में उनके वर्गीकरण पर आगे क्या प्रयास हुए, उन प्रयासों को कितनी सफलता मिली ये भी बहस का मुद्दा हो जाता है।

अब आप अगर यहाँ तक पढ़ चुके हैं तो देखिये कि जो बात संगीत पर होनी थी वो धर्म से शुरू होकर गणित तक पहुँच गई। इतने पे भी स्थिति ये है कि हम ये बताने की कोशिश करें कि राग हिंडोल मारवा थाट का है, या कल्याण थाट का, तो एक बड़ी बहस खड़ी हो सकती है।

तो आप ये भी समझ सकते हैं कि माला की तरह, धर्म से होते हुए, संगीत को जोड़ते जो गणित तक पहुंचा है, वो सबको जोड़ता धागा ही संस्कृति है। हरेक हिस्से की अपनी महत्ता है, साथ आये तो और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

अगर आपको संगीत में कोई और जानकारी चाहिये तो निचे हमें कमेंट बॉक्स में  कमेंट जरूर करे और अपना राय दें। 


शेयर करें |

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *